हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
न समझा गया अब्र क्या देख कर