ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
न समझा गया अब्र क्या देख कर
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़