की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
तुम सलामत रहो हज़ार बरस
एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिखा था सो भी मिट गया
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
दिल में ज़ौक़-ए-वस्ल ओ याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं
वाँ उस को हौल-ए-दिल है तो याँ मैं हूँ शर्म-सार
मिसाल ये मिरी कोशिश की है कि मुर्ग़-ए-असीर
तेरे तौसन को सबा बाँधते हैं
उग रहा है दर-ओ-दीवार पे सब्ज़ा 'ग़ालिब'
मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें 'ग़ालिब'
गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर