नज़र लगे न कहीं उन के दस्त-ओ-बाज़ू को
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए
दर-ख़ूर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे
मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'
दिल लगा कर लग गया उन को भी तन्हा बैठना