बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह
बार-हा देखी हैं उन की रंजिशें
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के
उस अंजुमन-ए-नाज़ की क्या बात है 'ग़ालिब'
हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर
मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
नज़र लगे न कहीं इन के दस्त-ओ-बाज़ू को
बहुत सही ग़म-ए-गीती शराब कम क्या है
की मिरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा
मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'