कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
कोई उम्मीद बर नहीं आती
ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा
ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
सादिक़ हूँ अपने क़ौल का 'ग़ालिब' ख़ुदा गवाह
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
गुलशन को तिरी सोहबत अज़-बस-कि ख़ुश आई है