बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
बार-हा देखी हैं उन की रंजिशें
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब'
बंदगी में भी वो आज़ादा ओ ख़ुद-बीं हैं कि हम
दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
ग़म नहीं होता है आज़ादों को बेश अज़-यक-नफ़स
सौ बार बंद-ए-इश्क़ से आज़ाद हम हुए
अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा
मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता