मैं उन्हें छेड़ूँ और वो कुछ न कहें
गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर
ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले
लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है
करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़