Sad Poetry of Mirza Ghalib (page 7)
नाम | ग़ालिब |
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अंग्रेज़ी नाम | Mirza Ghalib |
जन्म की तारीख | 1797 |
मौत की तिथि | 1869 |
जन्म स्थान | Delhi |
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
दोनों जहाँ दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
दिल मिरा सोज़-ए-निहाँ से बे-मुहाबा जल गया
दिल लगा कर लग गया उन को भी तन्हा बैठना
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
धमकी में मर गया जो न बाब-ए-नबर्द था
देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे
दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार
बहुत सही ग़म-ए-गीती शराब कम क्या है
बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे
अज़-मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
अर्ज़-ए-नाज़-ए-शोख़ी-ए-दंदाँ बराए-ख़ंदा है
अजब नशात से जल्लाद के चले हैं हम आगे
अफ़्सोस कि दंदाँ का किया रिज़्क़ फ़लक ने
आमद-ए-सैलाब-ए-तूफ़ान-ए-सदा-ए-आब है
आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं