अज़मत-ए-कअबा मुसल्लम है मगर बुत-कदा में
एक आराम ये कैसा है कि कुछ दूर नहीं
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न काबा ही तजल्ली-गाह ठहराया न बुत-ख़ाना
मानें जो मेरी बात मुरीदान-ए-बे-रिया
ईमान जाए या रहे जो हो बला से हो
ऐसी क्या थीं इताब की बातें
बातें हैं वाइज़ों की अज़ाब ओ सवाब क्या
मिलें किसी से तो बद-नाम हों ज़माने में
ऐ सितमगर नहीं देखा जाता
बन बन के बिगड़ जाएगी तदबीर कहाँ तक
न हो शबाब तो कैफ़िय्यत-ए-शराब कहाँ
दिल क्या निगाह-ए-मस्त से मय-ख़ाना बन गया
आप क्या एक सितमगार बने बैठे हैं
इश्क़ भी क्या चीज़ है सहल भी दुश्वार है