बन बन के बिगड़ जाएगी तदबीर कहाँ तक
चक्कर में रखेगी मुझे तक़दीर कहाँ तक
कुछ ग़ैर की जानिब निगह-ए-नाज़ की हद भी
खाता रहे महफ़िल में कोई तीर कहाँ तक
जाता हूँ उसे ढूँडने महफ़िल में अदू की
देखूँ तो बिगड़ती है ये तक़दीर कहाँ तक
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ईमान जाए या रहे जो हो बला से हो
तुम ले के अपने हाथ में ख़ंजर न देखना
ऐ सितमगर नहीं देखा जाता
न काबा ही तजल्ली-गाह ठहराया न बुत-ख़ाना
तुम्हें समझाएँ तो क्या हम कि शैख़-ए-वक़्त हो माइल
बातें हैं वाइज़ों की अज़ाब ओ सवाब क्या
अज़मत-ए-कअबा मुसल्लम है मगर बुत-कदा में
मानें जो मेरी बात मुरीदान-ए-बे-रिया
किस मुँह से करूँ मैं तन-ए-उर्यां की शिकायत
मिलें किसी से तो बद-नाम हों ज़माने में
वाइज़ पिए हुए हूँ ख़ुदा के लिए न छेड़
मुझे काफ़िर ही बताता है ये वाइज़ कम-बख़्त