ईमान जाए या रहे जो हो बला से हो
अब तो नज़र में वो बुत-ए-काफ़िर समा गया
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मानें जो मेरी बात मुरीदान-ए-बे-रिया
इश्क़ भी क्या चीज़ है सहल भी दुश्वार है
अश्क-ए-गुलगूँ को न ख़ून-ए-शोहदा को देखा
आप क्या एक सितमगार बने बैठे हैं
बातें हैं वाइज़ों की अज़ाब ओ सवाब क्या
मुझे काफ़िर ही बताता है ये वाइज़ कम-बख़्त
तुम्हें समझाएँ तो क्या हम कि शैख़-ए-वक़्त हो माइल
फिर आ गई इक बुत पे तबीअत को हुआ क्या
शुक्र उस ने किया लब पे मगर नाम न आया
बन बन के बिगड़ जाएगी तदबीर कहाँ तक
तुम ले के अपने हाथ में ख़ंजर न देखना
अज़मत-ए-कअबा मुसल्लम है मगर बुत-कदा में