दिल क्या निगाह-ए-मस्त से मय-ख़ाना बन गया
मज़मून-ए-आशिक़ाना भी रिंदाना बन गया
Faiz Ahmad Faiz
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माइल को जानते भी हो हज़रत हैं एक रिंद
वाइज़ पिए हुए हूँ ख़ुदा के लिए न छेड़
तल्ख़ी तुम्हारे वाज़ में है वाइज़ो मगर
बन बन के बिगड़ जाएगी तदबीर कहाँ तक
मानें जो मेरी बात मुरीदान-ए-बे-रिया
ऐसी क्या थीं इताब की बातें
डूबा हुआ उठूँ दम-ए-महशर शराब में
तुम्हें समझाएँ तो क्या हम कि शैख़-ए-वक़्त हो माइल
शुक्र उस ने किया लब पे मगर नाम न आया
किस मुँह से करूँ मैं तन-ए-उर्यां की शिकायत
तुम ख़ूब उड़ाते रहो ख़ाका मिरे दिल का