तल्ख़ी तुम्हारे वाज़ में है वाइज़ो मगर
देखो तो किस मज़े की है तल्ख़ी शराब में
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ऐसी क्या थीं इताब की बातें
दिल क्या निगाह-ए-मस्त से मय-ख़ाना बन गया
ईमान जाए या रहे जो हो बला से हो
बातें हैं वाइज़ों की अज़ाब ओ सवाब क्या
डूबा हुआ उठूँ दम-ए-महशर शराब में
अश्क-ए-गुलगूँ को न ख़ून-ए-शोहदा को देखा
मुझे काफ़िर ही बताता है ये वाइज़ कम-बख़्त
तुम्हें समझाएँ तो क्या हम कि शैख़-ए-वक़्त हो माइल
मानें जो मेरी बात मुरीदान-ए-बे-रिया
किस मुँह से करूँ मैं तन-ए-उर्यां की शिकायत
न काबा ही तजल्ली-गाह ठहराया न बुत-ख़ाना
बन बन के बिगड़ जाएगी तदबीर कहाँ तक