मुझे काफ़िर ही बताता है ये वाइज़ कम-बख़्त
मैं ने बंदों में कई बार ख़ुदा को देखा
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तुम ले के अपने हाथ में ख़ंजर न देखना
शुक्र उस ने किया लब पे मगर नाम न आया
बन बन के बिगड़ जाएगी तदबीर कहाँ तक
न काबा ही तजल्ली-गाह ठहराया न बुत-ख़ाना
इश्क़ भी क्या चीज़ है सहल भी दुश्वार है
तुम ख़ूब उड़ाते रहो ख़ाका मिरे दिल का
माइल को जानते भी हो हज़रत हैं एक रिंद
फिर आ गई इक बुत पे तबीअत को हुआ क्या
किस मुँह से करूँ मैं तन-ए-उर्यां की शिकायत
तौबा के टूटते का है 'माइल' मलाल क्यूँ
तल्ख़ी तुम्हारे वाज़ में है वाइज़ो मगर
अज़मत-ए-कअबा मुसल्लम है मगर बुत-कदा में