इस दौर में इंसान का चेहरा नहीं मिलता
कब से मैं नक़ाबों की तहें खोल रहा हूँ
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आँसू भी बहा कर देख लिए सोज़-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ कम न हुआ
हम ने माँगा था सहारा तो मिली इस की सज़ा
बरसों जो नज़र तूफ़ानों के आग़ोश में पलती रहती है
हर कड़े वक़्त पे आईना दिखाया है मुझे
अब किसी दर्द का शिकवा न किसी ग़म का गिला
सिर्फ़ अल्फ़ाज़ पे मौक़ूफ़ नहीं लुत्फ़-ए-सुख़न
हम ने तन्हा-नशीनी ख़रीदी तो है रौनक़ ओ शोरिश-ए-अंजुमन बेच कर
हुस्न-ए-ज़न काम लीजे बद-गुमानी फिर सही
अंदाज़-ए-सुख़न मस्लहत-आमेज़ बहुत है
मुफ़्त है ख़ून-ए-जिगर अज़्मत-ए-किरदार के साथ
तिरी अदाओं की सादगी में किसी को महसूस भी न होगा