कमरे की दीवार तोड़ कर मेरे सामने आया था
अपना सीना चीर के मुझ को अपना ख़ून पिलाया था
चमगादड़ सा उड़ा खुली खिड़की से बाहर पहुँचा था
आँख से ओझल हुआ नहीं और मेरे अंदर पहुँचा था
उस के लिए मैं रोज़ रात को ख़ून चूस कर लाता हूँ
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मुँह-ज़बानी क़ुरआन पढ़ते थे
सच है कि वो बुरा था हर इक से लड़ा किया
इक याद रह गई है मगर वो भी कम नहीं
क़ब्र में
यादें
लबों पर यूँही सी हँसी भेज दे
मछली की बू
परिंदे दूर फ़ज़ाओं में खो गए 'अल्वी'
सुखाने बाल ही कोठे पे आ गए होते
रात मिली तन्हाई मिली और जाम मिला
आए है बे-कसी-ए-इश्क़ पे
कभी तो ऐसा भी हो राह भूल जाऊँ मैं