दिन ढल रहा था जब उसे दफ़ना के आए थे
सूरज भी था मलूल ज़मीं पर झुका हुआ
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गवाही देता वही मेरी बे-गुनाही का
घर ने अपना होश सँभाला दिन निकला
तीसरी आँख
बरसों घिसा-पिटा हुआ दरवाज़ा छोड़ कर
मेरे सामने
इब्न-ए-मरयम
सच है कि वो बुरा था हर इक से लड़ा किया
इरादा है किसी जंगल में जा रहूँगा मैं
दिल्ली
डूबने से पहले
कुछ तो इस दिल को सज़ा दी जाए
यकुम जनवरी