उस से भी मिल कर हमें मरने की हसरत रही
उस ने भी जाने दिया वो भी सितमगर न था
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शोर साहिल का समुंदर में न था
यक्का उलट के रह गया घोड़ा भड़क गया
रद्द-ए-अमल
उसे मैं ने भी कल देखा था 'अल्वी'
शिकस्त
कल रात सूनी छत पे अजब सानेहा हुआ
'अल्वी' ये मो'जिज़ा है दिसम्बर की धूप का
इस भरी दुनिया से वो चल दिया चुपके से यूँ
उठी कुछ ऐसे बदन की ख़ुश्बू
शगुन ले कर न क्यूँ घर से चला मैं
खिड़कियों से झाँक कर गलियों में डर देखा किए
रात पड़े घर जाना है