'अल्वी' ये मो'जिज़ा है दिसम्बर की धूप का
सारे मकान शहर के धोए हुए से हैं
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देखा न होगा तू ने मगर इंतिज़ार में
घर से बाहर किस बला का शोर था
सातवीं मंज़िल से कूदा चाहिए
ऑफ़िस में भी घर को खुला पाता हूँ मैं
वो मेरे साथ आने पे तय्यार हो गया
एक बच्चा
हज़ारों लाखों दिल्ली में मकाँ हैं
कौन?
घर में क्या आया कि मुझ को
क़ब्र में
ग़ज़ल कही है कोई भाँग तो नहीं पी है
हर इक झोंका नुकीला हो गया है