शगुन ले कर न क्यूँ घर से चला मैं
शगुन ले कर न क्यूँ घर से चला मैं
तुम्हारे शहर में तन्हा फिरा मैं
अकेला था किसे आवाज़ देता
उतरती रात से तन्हा लड़ा मैं
गुज़रते वक़्त के पैरों में आया
सरकती धूप का साया बना मैं
ख़लाओं में मुझे फेंका गया था
ज़मीं पे रेज़ा रेज़ा हो गया मैं
मिरे होने ने मुझ को मार डाला
नहीं था तो बहुत महफ़ूज़ था मैं
यहाँ तो आईने ही आईने हैं
मुझे ढूँडो कहाँ पर खो गया मैं
(651) Peoples Rate This