बिखेर दे मुझे चारों तरफ़ ख़लाओं में
कुछ इस तरह से अलग कर कि जुड़ न पाऊँ मैं
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ऐसा हंगामा न था जंगल में
तीसरी आँख
रात पड़े घर जाना है
सदियों से किनारे पे खड़ा सूख रहा है
कहाँ भटकते फिरोगे 'अल्वी'
आए है बे-कसी-ए-इश्क़ पे
मरने के डर से और कहाँ तक जियेगा तू
इस की बात का पाँव न सर
रोज़ कहता है हवा का झोंका
सफ़र में सोचते रहते हैं छाँव आए कहीं
इब्न-ए-मरयम
ख़ुदा कहाँ है