मरने के डर से और कहाँ तक जियेगा तू
जीने के दिन तमाम हुए इंतिक़ाल कर
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कभी तो ऐसा भी हो राह भूल जाऊँ मैं
यकुम जनवरी
कहाँ भटकते फिरोगे 'अल्वी'
शांति की दुकानें खोली हैं
इक याद रह गई है मगर वो भी कम नहीं
आए है बे-कसी-ए-इश्क़ पे
उतार फेंकूँ बदन से फटी पुरानी क़मीस
ख़ुदा कहाँ है
यक्का उलट के रह गया घोड़ा भड़क गया
गली में कोई घर अच्छा नहीं था
उठी कुछ ऐसे बदन की ख़ुश्बू
उस से मिले ज़माना हुआ लेकिन आज भी