बिछड़ते वक़्त ऐसा भी हुआ है
किसी की सिसकियाँ अच्छी लगी हैं
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देखा न होगा तू ने मगर इंतिज़ार में
तीसरी आँख
हाए वो लोग जो देखे भी नहीं
'अल्वी' ख़्वाहिश भी थी बाँझ
खिड़कियों से झाँकती है रौशनी
कहीं खो न जाए क़यामत का दिन
रात के मुँह पर उजाला चाहिए
अभी दो चार ही बूँदें गिरीं हैं
और बाज़ार से क्या ले जाऊँ
सूरज
बिना मुर्ग़े के पर झटकती हैं
इस शहर में कहीं पे हमारा मकाँ भी हो