रात पड़े घर जाना है
सुब्ह तलक मर जाना है
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अब किसी की याद भी आती नहीं
धूप ने गुज़ारिश की
दवा कोई क्या काम लिखूँ
मैं अपना नाम तिरे जिस्म पर लिखा देखूँ
रद्द-ए-अमल
और बाज़ार से क्या ले जाऊँ
तीसरी आँख
कभी कभी
इंतिक़ाम
घर ने अपना होश सँभाला दिन निकला
अंधेरा है कैसे तिरा ख़त पढ़ूँ
गवाही देता वही मेरी बे-गुनाही का