रात को
आँख खुल जाती है
तो सोचता हूँ
सब बराबर है?!
मैं और मेरा घर
बीवी बच्चे लॉकर
कोई चीज़
इधर उधर तो नहीं हुई!
और फिर
देर तक
इस बात का
अफ़्सोस करता हूँ
कि मैं
कितना बिखर गया हूँ!!
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धूप में सब रंग गहरे हो गए
मुझे उन जज़ीरों में ले जाओ
लबों पर यूँही सी हँसी भेज दे
बिना मुर्ग़े के पर झटकती हैं
पर तोल के बैठी है मगर उड़ती नहीं है
दिन भर के दहकते हुए सूरज से लड़ा हूँ
अब जिधर भी जाते हैं
काँटे की तरह सूख के रह जाओगे 'अल्वी'
मैं अपने आप से डरने लगा था
और कोई चारा न था और कोई सूरत न थी
क्यूँ सर खपा रहे हो मज़ामीं की खोज में
छोड़ गया मुझ को 'अल्वी'