काँटे की तरह सूख के रह जाओगे 'अल्वी'
छोड़ो ये ग़ज़ल-गोई ये बीमारी बुरी है
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हम से जो आगे गए कितने मेहरबान थे
इब्न-ए-मरयम
घर में सामाँ तो हो दिलचस्पी का
घोड़े पर इक लाश
लोग कहते हैं कि मुझ सा था कोई
रोटी
ग़म बहुत दिन मुफ़्त की खाता रहा
थोड़ी सर्दी ज़रा सा नज़ला है
कितना मुश्किल है ज़िंदगी करना
सफ़र में सोचते रहते हैं छाँव आए कहीं
बस के नीचे कोई नहीं आता फिर भी
गली में कोई घर अच्छा नहीं था