कितना मुश्किल है ज़िंदगी करना
और न सोचो तो कितना आसाँ है
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मैं नाहक़ दिन काट रहा हूँ
जल मरने से पहले
दिन ढल रहा था जब उसे दफ़ना के आए थे
आग अपने ही लगा सकते हैं
अंधेरा है कैसे तिरा ख़त पढ़ूँ
छोड़ गया मुझ को 'अल्वी'
बदन का फ़ैसला
गवाही देता वही मेरी बे-गुनाही का
पर तोल के बैठी है मगर उड़ती नहीं है
खिड़कियों से झाँकती है रौशनी
मैं ख़ुद को मरते हुए देख कर बहुत ख़ुश हूँ
थोड़ी सर्दी ज़रा सा नज़ला है