मैं ख़ुद को मरते हुए देख कर बहुत ख़ुश हूँ
ये डर भी है कि मिरी आँख खुल न जाए कहीं
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डिप्रेशन
रात पड़े घर जाना है
अब के बरसात में पानी आए
धूप ने गुज़ारिश की
सच है कि वो बुरा था हर इक से लड़ा किया
देखा तो सब के सर पे गुनाहों का बोझ था
रात मिली तन्हाई मिली और जाम मिला
चाँद की कगर रौशन
हर वक़्त खिलते फूल की जानिब तका न कर
दोनों के दिल में ख़ौफ़ था मैदान-ए-जंग में
बिछड़ते वक़्त ऐसा भी हुआ है
ऐसा हो