हर वक़्त खिलते फूल की जानिब तका न कर
मुरझा के पत्तियों को बिखरते हुए भी देख
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अंधेरा है कैसे तिरा ख़त पढ़ूँ
ज़मीं कहीं भी न थी चार-सू समुंदर था
यादें
रिश्वत-ख़ोर दहाई
सुब्ह से खोद रहा हूँ घर को
इस भरी दुनिया से वो चल दिया चुपके से यूँ
छोड़ गया मुझ को 'अल्वी'
पर तोल के बैठी है मगर उड़ती नहीं है
सच कहाँ कहता है जाने वाला
वो जंगलों में दरख़्तों पे कूदते फिरना
रोज़ अच्छे नहीं लगते आँसू
नया साल दीवार पर टाँग दे