एक छोटा सा लकड़ी का घर
और आँगन में फिरती हुई मुर्ग़ियाँ
बीच में इक कुआँ
और चारों तरफ़ खेत ही खेत
खेतों में इक रास्ता हो
और रस्ते पे
इक पेड़ की छाँव में
वक़्त सस्ता रहा हो!
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गर्मी
आसमान पर जा पहुँचूँ
तिरा न मिलना अजब गुल खिला गया अब के
थोड़ी सर्दी ज़रा सा नज़ला है
सदियों से किनारे पे खड़ा सूख रहा है
कभी तो ऐसा भी हो राह भूल जाऊँ मैं
परिंदे दूर फ़ज़ाओं में खो गए 'अल्वी'
आए है बे-कसी-ए-इश्क़ पे
दिन भर के दहकते हुए सूरज से लड़ा हूँ
चौथा आसमान
बाएँ आँख में तिल वाले की ज़बानी
बरसों घिसा-पिटा हुआ दरवाज़ा छोड़ कर