लोग कहते हैं कि मुझ सा था कोई
वो जो बच्चों की तरह रोया था
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रौ में है रख़्श-ए-उम्र
रात पड़े घर जाना है
कतबा
बाज़ार के दामों की शिकायत है हर इक को
लबों पर यूँही सी हँसी भेज दे
और बाज़ार से क्या ले जाऊँ
पहली बूँद गिरी टिप से
यक्का उलट के रह गया घोड़ा भड़क गया
ऐसा हंगामा न था जंगल में
सूरज
ख़ुदा कहाँ है
हम से जो आगे गए कितने मेहरबान थे