क्यूँ सर खपा रहे हो मज़ामीं की खोज में
कर लो जदीद शायरी लफ़्ज़ों को जोड़ कर
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यार आज मैं ने भी इक कमाल करना है
बाएँ आँख में तिल वाले की ज़बानी
दुख का एहसास न मारा जाए
किसी से कोई तअल्लुक़ रहा न हो जैसे
सुब्ह से खोद रहा हूँ घर को
उस से बिछड़ते वक़्त मैं रोया था ख़ूब-सा
घर में सामाँ तो हो दिलचस्पी का
और बाज़ार से क्या ले जाऊँ
कुछ तो इस दिल को सज़ा दी जाए
दिन भर बच्चों ने मिल कर पत्थर फेंके फल तोड़े
वो जंगलों में दरख़्तों पे कूदते फिरना
रौ में है रख़्श-ए-उम्र