रखते हो अगर आँख तो बाहर से न देखो
देखो मुझे अंदर से बहुत टूट चुका हूँ
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परिंदे दूर फ़ज़ाओं में खो गए 'अल्वी'
बिना मुर्ग़े के पर झटकती हैं
खिड़कियों से झाँक कर गलियों में डर देखा किए
दोनों के दिल में ख़ौफ़ था मैदान-ए-जंग में
कहाँ भटकते फिरोगे 'अल्वी'
गिरह में रिश्वत का माल रखिए
बरसों घिसा-पिटा हुआ दरवाज़ा छोड़ कर
अंधेरा है कैसे तिरा ख़त पढ़ूँ
इक लड़का था इक लड़की थी
मुँह-ज़बानी क़ुरआन पढ़ते थे
आगे मत सोचो
हम से जो आगे गए कितने मेहरबान थे