मत मुँह से 'निसार' अपने को ऐ जान बुरा कह
है साहब-ए-ग़ैरत कहीं कुछ खा के न मर जाए
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कुछ मुझे अब ज़िंदगी अपनी नज़र आती नहीं
किस काफ़िर-बे-मेहर से दिल अपना लगा है
ख़ंजर न कमर में है न तलवार रखे है
जूँ जूँ नहीं देखे है 'निसार' अपने सनम को
क्या जामा-ए-फुल-कारी उस गुल की फबन का था
सौ तरह का छोड़ कर आराम तेरे वास्ते
देखे कहीं रस्ते में खड़ा मुझ को तो ज़िद से
दोस्ती चाह दिली मेहर-ओ-मोहब्बत गुज़री
ये जो हम से दो चार बैठे हैं
अश्क हुए हैं अबतर ऐसे हम को बहाए देते हैं
हम दिल ओ जाँ से ख़रीदार हैं किन के उन के
चोरी चोरी आँख लड़ते में दिखा दूँ तो सही