जिन अश्कों की फीकी लौ को हम बेकार समझते थे
उन अश्कों से कितना रौशन इक तारीक मकान हुआ
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अश्क अपना कि तुम्हारा नहीं देखा जाता
जब हिज्र के शहर में धूप उतरी मैं जाग पड़ा तो ख़्वाब हुआ
वफ़ा की कौन सी मंज़िल पे उस ने छोड़ा था
ज़ख़्म के फूल से तस्कीन तलब करती है
मिरा होना न होना
वो अक्सर दिन में बच्चों को सुला देती है इस डर से
अजीब ख़ौफ़ मुसल्लत था कल हवेली पर
फिर वही मैं हूँ वही शहर-बदर सन्नाटा
मा'रका अब के हुआ भी तो फिर ऐसा होगा
भड़काएँ मिरी प्यास को अक्सर तिरी आँखें
उस सम्त न जाना जान मिरी
हर एक शब यूँही देखेंगी सू-ए-दर आँखें