वो अक्सर दिन में बच्चों को सुला देती है इस डर से
गली में फिर खिलौने बेचने वाला न आ जाए
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जुगनू गुहर चराग़ उजाले तो दे गया
वो शाख़-ए-महताब कट चुकी है
आप की आँख से गहरा है मिरी रूह का ज़ख़्म
क़त्ल छुपते थे कभी संग की दीवार के बीच
मुझे अब डर नहीं लगता
हर वक़्त का हँसना तुझे बर्बाद न कर दे
कठिन तन्हाइयाँ से कौन खेला मैं अकेला
ब-नाम-ए-ताक़त कोई इशारा नहीं चलेगा
फिर वही मैं हूँ वही शहर-बदर सन्नाटा
जब से उस ने शहर को छोड़ा हर रस्ता सुनसान हुआ
शाख़-ए-उरियाँ पर खिला इक फूल इस अंदाज़ से
मेरे कमरे में उतर आई ख़मोशी फिर से