हर शख़्स यहाँ गुम्बद-ए-बे-दर की तरह है
आवाज़ पे आवाज़ दो सुनता नहीं कोई
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लिबास बदले नहीं हम ने मौसमों की तरह
अगर चमन का कोई दर खुला भी मेरे लिए
यूँ समझ लो कि ब-जुज़ नाम-ए-ख़ुदा कुछ न रहा
जाना है उसी सम्त कि चारा नहीं कोई
कोई अकेला तो मैं सादगी-पसंद न था
क्या देखते हो राह में रुक कर यहाँ वहाँ
ठहरे हुए न बहते हुए पानियों में हूँ
नक़्श पानी पे बनाया क्यूँ था
दीवार अब कहीं न कोई दर दिखाई दे
सुनते हैं कि आबाद यहाँ था कोई कुम्बा
कोई कश्ती में तन्हा जा रहा है
ये हैं जो आस्तीन में ख़ंजर कहाँ से आए