सुनते हैं कि आबाद यहाँ था कोई कुम्बा
आसार भी कहते हैं यहाँ पर कोई घर था
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इक आस तो है कोई सहारा नहीं तो क्या
जाना है उसी सम्त कि चारा नहीं कोई
यूँ समझ लो कि ब-जुज़ नाम-ए-ख़ुदा कुछ न रहा
कोई कश्ती में तन्हा जा रहा है
इस तरफ़ से उस तरफ़ तक ख़ुश्क ओ तर पानी में है
जैसे दो मुल्कों को इक सरहद अलग करती हुई
हम ने भी देखी है दुनिया 'मोहसिन'
अगर चमन का कोई दर खुला भी मेरे लिए
ये जौर अहल-ए-अज़ा पर मज़ीद करते रहे
नक़्श पानी पे बनाया क्यूँ था
कोई अकेला तो मैं सादगी-पसंद न था