जैसे दो मुल्कों को इक सरहद अलग करती हुई
वक़्त ने ख़त ऐसा खींचा मेरे उस के दरमियाँ
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लिबास बदले नहीं हम ने मौसमों की तरह
अगर चमन का कोई दर खुला भी मेरे लिए
हम ने भी देखी है दुनिया 'मोहसिन'
रस्ते में कोई आ के इनाँ-गीर हो न जाए
यूँ समझ लो कि ब-जुज़ नाम-ए-ख़ुदा कुछ न रहा
ठहरे हुए न बहते हुए पानियों में हूँ
हर शख़्स यहाँ गुम्बद-ए-बे-दर की तरह है
ज़माने भर की ज़िल्लत सामने थी
कोई अकेला तो मैं सादगी-पसंद न था
हर रोज़ नया हश्र सर-ए-राहगुज़र था
क्या देखते हो राह में रुक कर यहाँ वहाँ