यूँ बढ़ी साअत-ब-साअत लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-फ़िराक़
रफ़्ता रफ़्ता मैं ने ख़ुद को दुश्मन-ए-जाँ कर दिया
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उस ने इस तरह मोहब्बत की निगाहें डालीं
शमीम-ए-ज़ुल्फ़ ओ गुल-ए-तर नहीं तो कुछ भी नहीं
ख़्वाब-ए-हस्ती
सर्व-ओ-समन भी मौज-ए-नसीम-ए-सहर भी है
मिले मुझ को ग़म से फ़ुर्सत तो सुनाऊँ वो फ़साना
मेरी अर्ज़-ए-शौक़ बे-मअ'नी है उन के वास्ते
हम दहर के इस वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं
ग़म की तस्वीर बन गया हूँ मैं
इक प्यास भरे दिल पर न हुई तासीर तुम्हारी नज़रों की
फ़ज़ा-ए-शब में सितारे हज़ार गुज़रे हैं
दाग़-ए-ग़म दिल से किसी तरह मिटाया न गया