गो कि हम सफ़्हा-ए-हस्ती पे थे एक हर्फ़-ए-ग़लत
लेकिन उठ्ठे भी तो इक नक़्श बिठा कर उठे
Wasi Shah
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Habib Jalib
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ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
थी वस्ल में भी फ़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब
डर तो मुझे किस का है कि मैं कुछ नहीं कहता
जलता हूँ हिज्र-ए-शाहिद ओ याद-ए-शराब में
हो न बेताब अदा तुम्हारी आज
'मोमिन' ख़ुदा के वास्ते ऐसा मकाँ न छोड़
वादे की जो साअत दम-ए-कुश्तन है हमारा
महशर में पास क्यूँ दम-ए-फ़रियाद आ गया
कुछ क़फ़स में इन दिनों लगता है जी
वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
मोमिन ये असर सियाह-मस्ती का न हो