कल तो देखा था 'मुबारक' बुत-कदे में आप को
आज हज़रत जा के मस्जिद में मुसलमाँ हो गए
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ईमान की तो ये है कि ईमान अब कहाँ
ये तसर्रुफ़ है 'मुबारक' दाग़ का
तुम को समझाए मुबर्रक कोई क्यूँकर अफ़्सोस
देखे उसे हर आँख का ये काम नहीं है
तौबा की रिंदों में गुंजाइश कहाँ
जो उन को चाहिए वो किए जा रहे हैं वो
हम भी दीवाने हैं वहशत में निकल जाएँगे
हवा बाँधते हैं जो हज़रत जिनाँ की
बद-ज़न हैं अहल-ए-काबा मुझ दैर-आश्ना से
क्यूँ किया करते हैं आहें कोई हम से पूछे
क़ुबूल हो कि न सज्दा ओ सलाम अपना
उस गली में हज़ार ग़म टूटा