तुम को समझाए 'मुबारक' कोई क्यूँकर अफ़्सोस
तुम तो रोने लगे यार और भी समझाने से
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ये घटा ऐसी घटा इतनी घटा
यहाँ क्या है वहाँ क्या है इधर क्या है उधर क्या है
उस गली में हज़ार ग़म टूटा
अजब रंग की मय-परस्ती रही
आइना सामने अब आठ पहर रहता है
जाँ-निसारान-ए-मोहब्बत में न हो अपना शुमार
बद-ज़न हैं अहल-ए-काबा मुझ दैर-आश्ना से
इसे सौदा उसे सौदा ये दीवाना वो दीवाना
जो निगाह-ए-नाज़ का बिस्मिल नहीं
जो पाँच वक़्त मुसल्ले पे क़िबला-रू निकले
जो क़यामत का नहीं दिन वो मिरा दिन कैसा
निकलना आरज़ू का दिल से मालूम