आइना सामने अब आठ पहर रहता है
कहीं ऐसा न हो ये मद्द-ए-मुक़ाबिल हो जाए
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तौबा की रिंदों में गुंजाइश कहाँ
उधर चुटकी वो दिल में ले रहे हैं
तुम को समझाए मुबर्रक कोई क्यूँकर अफ़्सोस
मेहरबानी चारासाज़ों की बढ़ी
अब वही सैद है जो था सय्याद
कब उन आँखों का सामना न हुआ
फिर मिले हम उन से फिर यारी बढ़ी
यहाँ क्या है वहाँ क्या है इधर क्या है उधर क्या है
दिन भी है रात भी है सुब्ह भी है शाम भी है
या दूर मिरा हिजाब कर दे
कहते हैं कि दे मेरी बला दाद किसी की
इस भरी महफ़िल में हम से दावर-ए-महशर न पूछ