या दूर मिरा हिजाब कर दे
या अपने को बे-नक़ाब कर दे
सौ बार बसे ये दिल की बस्ती
सौ बार कोई ख़राब कर दे
देखें तिरी हम पसंद ज़ाहिद
इक हूर तो इंतिख़ाब कर दे
नादाँ को दे दिया 'मुबारक'
दिल को न कहीं ख़राब कर दे
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पूछी तक़्सीर तो बोले कोई तक़्सीर नहीं
ये तसर्रुफ़ है 'मुबारक' दाग़ का
मेरे सर से क्या ग़रज़ सरकार को
कल तो देखा था 'मुबारक' बुत-कदे में आप को
गई बहार मगर अपनी बे-ख़ुदी है वही
घटा उट्ठी है काली और काली होती जाती है
इक तिरी बात कि जिस बात की तरदीद मुहाल
किस पे दिल आया कहाँ आया बता ऐ नासेह
जो दिल-नशीं हो किसी के तो इस का क्या कहना
मोहब्बत में ठनी अक्सर यहाँ तक
मेहराब-ब-इबादत ख़म-ए-अबरू है बुतों का
तमाशाई तो हैं तमाशा नहीं है