गई बहार मगर अपनी बे-ख़ुदी है वही
समझ रहा हूँ कि अब तक बहार बाक़ी है
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फिर मिले हम उन से फिर यारी बढ़ी
बद-ज़न हैं अहल-ए-काबा मुझ दैर-आश्ना से
तुम वक़्त पे कर जाते हो पैमान फ़रामोश
नावक कहें सिनाँ कहें तलवार क्या कहें
हवा बाँधते हैं जो हज़रत जिनाँ की
जिनाँ की कहते हैं यूँ मुझ से हज़रत-ए-वाइज़
हज़ारों मय-कदे सर पर लिए हैं
यूँ ये बदली काली काली जाएगी
मोहब्बत में ठनी अक्सर यहाँ तक
अब वही सैद है जो था सय्याद
निकलना आरज़ू का दिल से मालूम
तमाशाई तो हैं तमाशा नहीं है