जिनाँ की कहते हैं यूँ मुझ से हज़रत-ए-वाइज़
कि जैसे देखी न हो यार की गली मैं ने
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तुम भूल गए मुझ को यूँ याद दिलाता हूँ
गई बहार मगर अपनी बे-ख़ुदी है वही
मेहराब-ब-इबादत ख़म-ए-अबरू है बुतों का
समझाएँ किस तरह दिल-ए-ना-कर्दा-कार को
रहने दे अपनी बंदगी ज़ाहिद
तुम वक़्त पे कर जाते हो पैमान फ़रामोश
आब-ओ-दाना तिरा ऐ बुलबुल-ए-ज़ार उठता है
बेगाना-ए-वफ़ा तिरा शेवा ही और है
पूछी तक़्सीर तो बोले कोई तक़्सीर नहीं
बेश ओ कम का शिकवा साक़ी से 'मुबारक' कुफ़्र था
कब वो आएँगे इलाही मिरे मेहमाँ हो कर
जो लड़खड़ाए क़दम मय-कदे में मस्तों के