रहने दे अपनी बंदगी ज़ाहिद
बे-मोहब्बत ख़ुदा नहीं मिलता
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नावक कहें सिनाँ कहें तलवार क्या कहें
फूल क्या डालोगे तुर्बत पर मिरी
लगा दे सोज़-ए-मोहब्बत फिर आग सीने में
मेहराब-ब-इबादत ख़म-ए-अबरू है बुतों का
इक तिरी बात कि जिस बात की तरदीद मुहाल
जाँ-निसारान-ए-मोहब्बत में न हो अपना शुमार
किसी से आज का वादा किसी से कल का वादा है
किसी ने बर्छियाँ मारीं किसी ने तीर मारे हैं
हँसी है दिल-लगी है क़हक़हे हैं
जो पाँच वक़्त मुसल्ले पे क़िबला-रू निकले
यूँ ये बदली काली काली जाएगी
आब-ओ-दाना तिरा ऐ बुलबुल-ए-ज़ार उठता है