जबीं पर ख़ाक है ये किस के दर की
बलाएँ ले रहा हूँ अपने सर की
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जो क़यामत का नहीं दिन वो मिरा दिन कैसा
मिरी ख़ाक भी उड़ेगी बा-अदब तिरी गली में
इश्क़ की चौसर किस ने खेली ये तो खेल हमारे हैं
नावक कहें सिनाँ कहें तलवार क्या कहें
बेश ओ कम का शिकवा साक़ी से 'मुबारक' कुफ़्र था
इस भरी महफ़िल में हम से दावर-ए-महशर न पूछ
यूँ ये बदली काली काली जाएगी
लगा दे सोज़-ए-मोहब्बत फिर आग सीने में
अब कौन बात रह गई ये बात भी गई
खटक रही है कोई शय निकाल दे कोई
फिर न दरमाँ का कभी नाम 'मुबारक' लेना
क़िबला-ओ-काबा ये तो पीने पिलाने के हैं दिन